भारत का लोकतंत्र संविधान और संस्थाओं की मज़बूती पर टिका हुआ है। लेकिन जब वही संस्थाएँ सवालों के घेरे में आ जाएँ, तो लोकतंत्र की बुनियाद डगमगाने लगती है। हाल ही में समाजवादी पार्टी (सपा) ने चुनाव आयोग को एक हलफ़नामा सौंपा, जिसमें गंभीर मुद्दों को उठाया गया।
✅ हलफ़नामा दिया गया, कार्रवाई नहीं हुई
समाजवादी पार्टी ने चुनाव आयोग को सभी आवश्यक तथ्यों के साथ हलफ़नामा दिया। उम्मीद थी कि आयोग तत्काल उसपर कार्रवाई करेगा और जनता को पारदर्शिता का भरोसा दिलाएगा। लेकिन नतीजा इसके उलट रहा —
👉 कार्रवाई करने के बजाय नया बहाना गढ़ा गया कि “हलफ़नामा स्कैन कॉपी में क्यों दिया गया?”
यह बहाना चुनाव आयोग की नियत और निष्पक्षता दोनों पर सवाल खड़ा करता है।
❓ असली सवाल क्या हैं?
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क्या चुनाव आयोग को दस्तावेज़ की सच्चाई और उसमें दर्ज तथ्यों को देखना चाहिए या केवल कागज़ के फ़ॉर्मेट पर बहस करनी चाहिए?
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क्या आयोग लोकतंत्र की रक्षा करेगा या भाजपा के इशारों पर चलेगा?
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यदि विपक्ष का हर सवाल बहानेबाज़ी में टाल दिया जाएगा, तो जनता अपना भरोसा कहाँ रखे?
👁️ देश सब देख रहा है
आज हर नागरिक यह देख रहा है कि—
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विपक्ष द्वारा दिए गए दस्तावेज़ों और सबूतों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
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सत्ता पक्ष की बातों को तुरंत महत्व दिया जाता है।
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और चुनाव आयोग लगातार चुप्पी साधे बैठा है।
लोकतंत्र की असली ताक़त जनता की आवाज़ और वोट है। लेकिन जब वोटिंग प्रक्रिया और चुनावी संस्थाओं की पारदर्शिता पर संदेह होने लगे, तो यह पूरे देश के लिए खतरनाक संकेत है।
✊ लोकतंत्र बचाने की ज़िम्मेदारी
लोकतंत्र को बचाने के लिए ज़रूरी है कि—
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चुनाव आयोग निष्पक्ष भूमिका निभाए।
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विपक्ष के दस्तावेज़ों और सबूतों को गंभीरता से लिया जाए।
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और सबसे अहम, जनता को भरोसा दिलाया जाए कि चुनाव जनता के लिए हैं, सत्ता के लिए नहीं।
🔖 निष्कर्ष
समाजवादी पार्टी का हलफ़नामा सिर्फ़ एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा की दिशा में एक गंभीर पहल है। लेकिन जब चुनाव आयोग ही बहानेबाज़ी पर उतर आए, तो सवाल उठना लाज़मी है।
देश अब यह जानना चाहता है कि आयोग किसके प्रति जवाबदेह है — जनता के प्रति या भाजपा के प्रति?
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